रक्षा बंधन का पौराणिक महत्व Rakshabandhan ka mahatav

रक्षा बंधन का पौराणिक महत्व

भारतदेश  हमेशा से ही त्योहारों का देश माना गया है। यहाँ की संस्कृति और यहाँ के रीति रिवाज़ हमेशा से ही सभी के लिये आकर्षण का केंद्र रहे है। हिन्दुस्तान मे मनाये जाने वाला हर एक त्यौहार अपने आप मे एक अनूठा उत्सव होता है, जो अपने अन्दर भारतीय समाज और सनातन संस्कृति की एक अमिट छाप को संजोए रखता है। 

यहाँ मनाये जाने वाले हर त्यौहार के पीछे एक कहानी है जो भारतीय संस्कृति और हमारे सामाजिक मूल्यों को जीवंत बनाये रखती है। इन्ही त्यौहार मे से एक त्यौहार रक्षा बंधन का त्योहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। 


रक्षाबंधन के इस त्योहार का पौराणिक,ऐतिहासिक और सामाजिक महत्त्व भी अधिक है। रक्षाबंधन का यह त्योहार भाई और बहन के अनूठे सम्बन्ध को दर्शाता है। जहाँ बहन अपने भाई की कलाई पर रक्षासूत्र का एक धागा बांधकर उसके दीर्घायु की कामना करती है 

और इस रिश्ते को एक सामाजिक विस्तार प्रदान करती है और भाई भी अपनी बहन के रक्षा के लिए वचनबद्ध होता है। यही विस्तार तो इस रिश्ते को इतना गहरा कर देता है, जहाँ उम्र और धर्म भी इसमे विलीन हो जाते है।

रक्षा बंधन का पौराणिक महत्व

दूसरे त्योहारों की भाति रक्षा बंधन भी अपने पीछे एक रोचक पौराणिक कहानी को संजोय हुऐ है, जहाँ से इस आत्मीय सम्बन्ध को एक नये रूप मे स्थापित करने का चलन प्रारम्भ हुआ। इसका जिक्र हमारे पौराणिक साहित्य भागवत पुराण और विष्णु पुराण मे मिलता है। 

इस त्यौहार की भूमिका भगवान विष्णु के देवताओं के कहने पर वामन अवतार धारण करने से शुरू होती है। यह कथा इस प्रकार है, जब देवताओं से युद्ध मे हारने पर दैत्यों की शक्ति समाप्त हो गयी, तब दैत्यों के तेजस्वी गुरु शुक्राचार्य ने दैत्यों के राजा बलि से ऐसे सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने का संकल्प लिया। 

शुक्राचार्य के इस कृत्य से धीरे - धीरे देवताओं का तेज़ क्षीण होने लगा और दैत्यों का बल बढ़ने लगा। इससे सभी देवता स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे। तब सभी देवताओं ने यह निश्चय किया की वे सभी भगवान विष्णु से साहयता के लिये आग्रह करेगे। 

सभी ने श्री हरी से प्रार्थना की हे सर्वेश्वर आप हमारी और इस सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा कीजिये यदि शुक्राचार्य ने अपने कृत्यों द्वारा बलि को इंद्र पद पर आसीन करा दिया तो तीनो लोको मे असुरो का वर्चस्व स्थापित हो जायेगा और इस सृष्टि मे पाप और अनाचार सर्वत्र व्याप्त हो जायेगा। देवताओं की इस प्रकार प्रार्थना करने पर जगत्पति श्री विष्णु ने देवमाता अदिति के गर्भ से वामन भगवान के रूप मे अवतार लिया। 

वामन भगवान का राजा बलि की यज्ञ शाला मे जाना 

वामन भगवान एक छोटे बटुक ब्राह्मण के रूप मे राजा बलि की यज्ञ शाला मे उस समय पहुंचे जब शुक्राचार्य बलि से अंतिम यज्ञ का संकल्प करा रहे थे। उसी समय वामन भगवान ने राजा बलि से दक्षिणा के रूप मे तीन पग धरती के लिये याचना की

शुक्राचार्य अपने तपोबल के प्रभाव से वामन के रूप मे श्री हरि को पहचान गये। तब शुक्राचार्य ने बलि को वामन का भेद बताकर उन्हे दक्षिणा देने से मना किया, की वे दो पग मे ही इस सम्पूर्ण सृष्टि को नाप लेगे और जिससे तुम्हरा सारा वैभव समाप्त हो जायेगा। 



परन्तु राजा बलि बहुत ही धर्मात्मा थे और वह भक्त प्रहलाद के पौत्र भी थे इसलिये अपने द्वार पर आये हुऐ याचक को खली हाथ नहीं लौटा सकते थे, साथ ही वह यह भेद जानकर की वामन रूप मे स्वयं भगवान विष्णु है आज जो एक भिक्षुक के रूप मे बलि के द्वार पर खड़े है। राजा बलि इस क्षण को अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहता था इसलिये उसने अपने गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी वामन भगवान को दान देने का निश्चय किया।

वामन भगवान द्वारा तीन पग मे सृष्टि को मापना 
 

राजा बलि ने संकल्प करके वामन से तीन पग धरती को मापने के लिये कहा, तब श्री हरी ने अपना विराट स्वरुप प्रगट कर पहले ही पग मे सम्पूर्ण पृथ्वी को माप लिया और दूसरे पग मे सवर्ग लोक को माप लिया। 

किन्तु अब तीसरा पग रखने की कोई जगह नहीं बची तब बलि ने अपना वचन पूरा करने के लिये वामन भगवान से तीसरा पग अपने मस्तक पर रखने को कहा जिससे राजा बलि पाताल को चले गये। राजा बलि के उस सर्वोच्च दान से ही "बलिदान" शब्द को अस्तित्व प्राप्त हुआ। भगवान विष्णु राजा बलि के इस वचन पालन से अत्यधिक प्रसन्न हुऐ।

तब उन्होने राजा बलि को वरदान देते हुऐ कहा हे बलि जिस इंद्र पद के लिये तुम यज्ञ कर रहे थे वो तुम्हे मे प्रदान करता हु मेरे वरदान से सावर्णि मन्वन्तर मे तुम्हे इंद्र का पद प्राप्त होगा, तब तक तुम पाताल मे निवास करो। 

राजा बलि ने कहा हे प्रभु अब मेरे सारा वैभव और शक्ति क्षीण हो चुकी है, इसलिये इंद्र अब कभी भी मेरे प्राण ले सकता है, आप मेरी रक्षा के लिये मेरे साथ पाताल मे ही निवास कीजिये। राजा बलि की भक्ति से प्रसन्न हो श्री विष्णु ने उसकी रक्षा का वचन दे उसकी इच्छा अनुसार पाताल मे निवास करना स्वीकार किया।

रक्षा बंधन का पौराणिक महत्व


माता लक्ष्मी का सहायता के लिए भगवान शिव के पास जाना 
 

अपने वचन अनुसार भगवान विष्णु वैकुण्ठ को छोड़कर पाताल मे निवास करने लगे जिससे माता लक्ष्मी चिंतित रहने लगी। श्री हरी के अपने निवास पर ना होने से सृष्टि मे असंतुलन उत्पन्न हो गया। तब माता लक्ष्मी परम पिता ब्रह्मा के पास जाकर श्री हरी को वचन से मुक्त करने का उपाय पूछने लगी 

परन्तु ब्रह्मा जी इसमे असमर्थ थे तब माता अंत मे भगवान शिव के पास गयी और उनसे श्री विष्णु को बलि को दिये हुऐ अपने वचन से मुक्त करने का उपाय करने की प्राथना की। तब भगवान शिव ने इसका उपाय बताकर माता लक्ष्मी को एक ब्राह्मण स्त्री के रूप मे राजा बलि के पास भेजा। 

माता लक्ष्मी का सर्वप्रथम राजा बलि को राखी बांधना
 

भगवान शिव से उपाय को सुनकर तब माता लक्ष्मी एक ब्राह्मण स्त्री का वेश बनाकर राजा बलि के पास पाताल लोक मे गयी। वहां जाकर उन्होने राजा बलि से अपनी सहयता का वचन मांगा और उन्हे अपना धर्म भाई मानकर उनकी कलाई मे एक धागा बंधा। तब राजा बलि ने उस धागे की मर्यादा मे बंधकर ब्राह्मण स्त्री रूप धारण माता लक्ष्मी को उनकी रक्षा का वचन दिया। 

वचन लेकर तब माँ लक्ष्मी ने सृष्टि के संतुलन को बनाये रखने के लिये भगवान विष्णु को उन्हे दिये गये वचन से मुक्त करने को कहा। तब राजा बलि ने अपना वचन पालन करते हुऐ भगवान विष्णु को अपने वचन से मुक्त कर दिया, तब श्री हरि ने भाई बहन के इस सम्बन्ध को अमर बनने का वरदान दिया

तथा राजा बलि को प्रत्येक वर्ष चार माह के लिये उसके यहाँ माता लक्ष्मी सहित निवास करने का वचन भी दिया। तभी से रक्षा बंधन को मनाया जाता है, जिसमे भाई हर संकट के समय अपनी बहन की रक्षा का वचन देकर उसे निर्भय करता है। तभी से यह परम्परा हमारी संस्कृति का एक अटूट हिस्सा बन गई है।


रक्षाबंधन का धार्मिक महत्व 

भारत देश विभिन्नता मे एकता का प्रतीक है। यहाँ पर कई धर्मो के लोग रहते हुए आपस मे एकता और प्रेम की मिशाल प्रदान करते है। भारत के प्रत्येक राज्य मे विभिन्न तरह के लोग रहते है जिनकी अपनी परंपराए और रीति रिवाज है। वह प्रत्येक त्योहारों को अपने रीति रिवाज के अनुसार मनाते है। रक्षाबंधन का यह त्योहार और यह दिन प्रत्येक राज्य मे अलग अलग प्रकार से मनाया जाता है।

उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं।

अमरनाथ की सुप्रसिद्ध धार्मिक यात्रा गुरु पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर रक्षाबन्धन के दिन सम्पूर्ण होती है। कहते हैं इसी दिन यहाँ का हिमानी शिवलिंग भी अपने पूर्ण आकार को प्राप्त होता है।

महाराष्ट्र राज्य में यह त्योहार नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से विख्यात है। इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिये नारियल अर्पित करने की परम्परा भी है। यही कारण है कि इस एक दिन के लिये मुंबई के समुद्र तट नारियल के फलों से भर जाते हैं।

राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बाँधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुँदना लगा होता है। यह केवल भगवान को ही बाँधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है।

 

जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर, मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्त्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के पूजास्थल बनाकर उनकी मन्त्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं।

उनका तर्पण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनायी जाती है। राखी को कच्चे दूध से अभिमन्त्रित करते हैं और इसके बाद ही भोजन करने का प्रावधान है।

तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिये यह दिन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्पण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।

पिछले वर्ष के पुराने पापों को पुराने यज्ञोपवीत की भाँति त्याग देने और स्वच्छ नवीन यज्ञोपवीत की भाँति नया जीवन प्रारम्भ करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। इस दिन यजुर्वेदीय ब्राह्मण 6 महीनों के लिये वेद का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं। इस पर्व का एक नाम उपक्रमण भी है जिसका अर्थ है- नयी शुरुआत। 

व्रज में हरियाली तीज (श्रावण शुक्ल तृतीया) से श्रावणी पूर्णिमा तक समस्त मन्दिरों एवं घरों में ठाकुर जी झूले में विराजमान होते हैं। रक्षाबन्धन वाले दिन झूलन-दर्शन समाप्त होते हैं।

उत्तर प्रदेश मे श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन रक्षा बंधन का पर्व मनाया जाता है। रक्षा बंधन के अवसर पर बहन अपना सम्पूर्ण प्यार रक्षा (राखी ) के रूप में अपने भाई की कलाई पर बांध कर उड़ेल देती है। भाई इस अवसर पर कुछ उपहार देकर भविष्य में संकट के समय सहायता देने का बचन देता है।

रक्षाबंधन का ऐतिहासिक महत्व 

राजपूत योद्धा  जब युद्ध  पर जाते थे तब महिलाएँ उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा। राखी के साथ एक और प्रसिद्ध कहानी जुड़ी हुई है।

कहा जाता है की मेवाड़ की रानी कर्मावती को यह सुचना मिली की बहादुरशाह मेवाड़ पर हमला करने की योजना बना रहा है। रानी ने लड़ऩे में अपनी असमर्थता जताते हुए मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती व उसके राज्य की रक्षा की।

महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूँ तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। 



महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। 

कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।

रक्षा बंधन का पौराणिक महत्व

रक्षाबंधन का सामाजिक महत्त्व 

रक्षाबन्धन का पर्व सामाजिक और पारिवारिक  एकसूत्रता का सांस्कृतिक प्रतीक है। इस दिन बहनें अपने भाई के दायें हाथ पर राखी बाँधकर उसके माथे पर तिलक करती हैं और उसकी दीर्घ आयु की कामना करती हैं। बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है। ऐसा माना जाता है कि राखी के रंगबिरंगे धागे भाई-बहन के प्यार के बन्धन को मज़बूत करते है। 

भाई बहन एक दूसरे को मिठाई खिलाते हैं और सुख-दुख में साथ रहने का विश्वास दिलाते हैं। यह एक ऐसा पावन पर्व है जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को पूरा आदर और सम्मान देता है।

विवाह के बाद बहन पराये घर में चली जाती है। इस बहाने प्रतिवर्ष अपने सगे ही नहीं अपितु दूरदराज के रिश्तों के भाइयों तक को उनके घर जाकर राखी बाँधती है और इस प्रकार अपने रिश्तों का नवीनीकरण करती रहती है। 

सगे भाई बहन के अतिरिक्त अनेक भावनात्मक रिश्ते भी इस पर्व से बँधे होते हैं जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से परे हैं। रक्षाबन्धन आत्मीयता और स्नेह के बन्धन से रिश्तों को मज़बूती प्रदान करने का पर्व है। यही कारण है कि इस अवसर पर न केवल बहन भाई को ही अपितु अन्य सम्बन्धों में भी रक्षासूत्र  बाँधने का प्रचलन है। गुरु शिष्य को रक्षासूत्र बाँधता है तो शिष्य गुरु को। 

भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षासूत्र बाँधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बाँधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में उसका उचित ढंग से प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी सफल हो।  इस प्रकार दोनों एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिये परस्पर एक दूसरे को अपने बन्धन में बाँधते हैं।


रक्षा बंधन का पौराणिक महत्व

अंत मे निष्कर्ष 

ये सभी त्यौहार हमारी संस्कृति की एक पहचान है, जो सदिया बीतने के बाद भी अपनी पहचान को बनाये हुऐ है। आज भले ही समय के अनुसार हमारे विचारो और रहन सहन मे परिवर्तन आया हो परन्तु हमारे सामाजिक मूल्यों मे कोई परिवर्तन नहीं आया है। जो आज भी इस समाज मे रिश्तो की मर्यादा को जीवंत बनाये हुऐ है।  


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